फतिंगा
एक फतिंगा आया उड़कर,
लगाता रहा दीये की चक्कर।
पता ना था उसे इसका असर,
फिर दीये ने पुछा फतिंगे से।
क्यों लगा रहे हो मेरा चक्कर।।
कहा फतिंगे ने उड़ते उड़ते,
करता हूँ मै मुहब्बत तुझसे।
कहा दीये ने गुस्सा होकर,
दिखा तु अब मुझमें समाकर।
जल जाओगे पास आकर।।
पता था फतिंगे को उम्र है रातभर,
इक रात के इस जीवन को।
जीया उसने बहुत ही जीभर,
किया मुहब्बत उसने इतना।
कर ना सकेगा कोई जितना।।
हर बार करीब आकर जला वो,
पर इक बार भी उफ ना किया वो।
सुबह जब धीमी हुई दीये की लौ,
उसमें समा गया पागल हंसकर वो।।
दोनों संग मे ही तो बुझ गये थे,
अमर अपने प्रेम को कर गये थे।
फतिंगा दीये मे समाकर जला था,
दीया भी तो फतिंगे को जलाकर जला था।।
अनिश कुमार
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