टाॅयलेट सड़क
सुरज की ढलती किरणें, उजाले को छुपा लेती है
तभी गाँव से कुछ ढके चेहरे, सड़क किनारे आती हैं
हाथों में लोटा होता है, आंखों में लज्जा होती है
दबे पांव, घुंघट में, भारी कदमों से आगे बढ़ती है
वही वह पथ है, जो टाॅयलेट सड़क कहलाती है
क्या चलता होगा मन में, जब गाड़ियों की लाइट पड़ती है
किससे कहे और क्या कहे, बस दर्द वो दिल में सहती है
हर रात बिस्तर पर याद करके, आंखें वो नम करती है
सुबह फिर वही जिल्लत होगी, सोचकर ही रुह काँपती है
वही वह पथ है, जो टाॅयलेट सड़क कहलाती है
बड़ी बड़ी गाड़ियाँ, काफिलों में उससे गुजरती है
लाल पीली नीली बत्ती, सायरन बजाती जाती है
हर आवाज को सुनकर, झुरमुट के पीछे वो डरती है
हर आहट पर सांसे, उसकी थम सी जाती है
वही वह पथ है, जो टाॅयलेट सड़क कहलाती है
क्या सोचती होगी, जब वह घर को लौटती है
आंगन में खड़े ट्रैक्टर और वाहनों को, देखती है
क्या सोचती होगी, जब टीवी पर सास बहू देखती है
खेतों और दलान पर, काम करते नौकरों को देखती है
जिस पथ पर भाई की, महंगी बाइक उड़ती है
वही वह पथ है, जो टाॅयलेट सड़क कहलाती है
ना वातानुकूलित आॅफिसों ना पंचायतों, से यह दिखती है
ना घरवालों, ना मुखिया सरपंच, के आंखों से यह दिखती है
जिस पथ पर वह आती जाती, तिल तिल मरती है
हाँ वही वह पथ है, जो टाॅयलेट सड़क कहलाती है
अनिश कुमार
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