कसक
समर्पण की जो संध्या थी
वो तेरी और मेरी थी
तेरे अंजुल के ऊपर में
मेरी अंजुल अकेली थी
वो फेरों के सफर में भी
कसक मेरी अधुरी थी
बिदाई के पहर में भी
नयन तुझको ही ढुँढी थी
तेरे भेजे हर तोहफे मैंने
अभी भी सजा रखे हैं
टैडी की टूट गई आंखें
गिरे आंसू हमारे हैं
बिना गुंबद का ताज अब भी
मेरे बक्से की शोभा है
क्या ये मुहब्बत है
या धोखा है, छलावा है
अनिश कुमार
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