बुधवार, 16 जनवरी 2019

Poem on Buniyad Kendra


मैं हूँ बुनियाद 

डगमगाने लगे हैं पग
लड़खड़ाने लगे हैं डग 
सींचा जिसको खून से अपने
भूलाने लगे हैं सब जग

थकता शरीर दुखती नसें
आँखें भी धुँआ धुँआ हैं
बाल बच्चों की चुभती बातें
मन बिल्कुल ही अकेला है 

कुछ आस नहीं, कुछ प्यास नहीं
सूरज डूब रहा, बचा कुछ खास नहीं
कहाँ जाये, किससे कहे, नहीं कुछ याद
आओ ना, पास मेरे, मैं हूँ बुनियाद


समय ने दिया कष्ट ऐसा
भूलेगा नहीं जीवन जैसा
घूंघट में अब तक जी ली
पता नहीं अब बीतेगा कैसा

सरकारी सुविधाओं की चाह न थी
जब तक वो थे कुछ परवाह न थी
जाते ही उनके बदल गया सब
घर, गला, माँग सूना हुआ सब

पिता का छूटा साथ, किया माँ ने पराया
ससुर ने खींचा हाथ, घर हो गया किराया
कहाँ जांये किससे कहें, नहीं कुछ याद
आओ ना, पास मेरे, मैं हूँ बुनियाद


कुदरत का कहर ऐसा बरपा   
नाम मिल गया दिब्यांग
एक सुविधा पाने को लोग
पूछते कहाँ है प्रमाण

राहत की कुछ चाहत नहीं
हक है वो भी मिला नहीं
मेरे शारीरिक कमियों से
घर का सदस्य बना नहीं

बचपन दोस्तों के बिन बीता
जवानी सबका ताना सुना
कहाँ जांये किससे कहें, नहीं कुछ याद
आओ ना, पास मेरे, मैं हूँ बुनियाद

अनिश कुमार

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