सोमवार, 17 मई 2021

गंगा रो रही है

उखड़ रही हर सांस

लिए आंचल में बच्चों की लाश

देखो सिसक रही है

कि गंगा रो रही है


लाचार पड़ा इन्सान

कि तरसे जाने को श्मशान

रिश्ते मुंह चिढ़ा रही है

कि गंगा रो रही है


बेबस है हर प्राण 

न जाने कब छूटे ये जान

अब लाशें बोल रही है

कि गंगा रो रही है


कभी  निश्छल कभी निर्मल

सी बहती हुई निर्बल

मृत सी हो रही है

कि गंगा रो रही है


कब तक सहोगी वार

कि अब तो हो जाओ विकराल

सियासत हो रही है

कि गंगा रो रही है


अब तो भरो हुंकार

कि कब तक चुप सी बहेगी धार

लो सत्ता सो रही है

कि गंगा रो रही है


अनिश कुमार


बुधवार, 12 मई 2021

मेरा शहर

 ये कैसा जहर घुला है हवाओं में मेरे शहर का

अब तो सांस भी लेना मुश्किल हुआ है मेरे शहर का

जन्नत समझ छोड़ आए थे  गाँव को अपने यहाँ

चन्द पल गुजरना मुश्किल हुआ है मेरे शहर का


अजीब सी वीरानी  से सामना है मेरे शहर का

कहकहें अब आंसू से भरे हैं मेरे शहर का

रिश्ते नाते दोस्त दुश्मन अंजान बने बैठे हैं घरों में

कब्र फूल नहीं प्लास्टिक के थैलों से भरे हैं मेरे शहर का


अस्पतालों में नाचती रही मौत और बाहर बिक गई सांसे

इन्सानियत मर रहा है मेरे शहर का

हर तरफ एम्बुलेंस का शोर है बस

और सब समाचार ठीक है मेरे शहर का


सियासतदान ना आयें हाथ जोड़े मेरे मुहल्ले में 

चुल्लू भर पानी भी नहीं बचा देने को मेरे शहर का

मेरे प्रभु, हवा खरीद ली हमने दान के लिए रखे पैसों से

सुना है  बहुत अमीर हैं मंदिर मेरे शहर का

अनिश कुमार


गुरुवार, 11 मार्च 2021

आंखें

 जब भी मैं बिहार की सड़कों से गुजरता हूँ

कुछ पथरीली आँखें 

टूटे चश्मे के  पीछे से मुझे

पहचानने कि कोशिश करती सी लगती हैं

 उन आँखों को देख लगता है 

कोई उनका खो गया है

वो निगाहें जैसे मुझसे पूछ रही हों,

क्या मैं उनका अपना हूँ?

क्या मैं वही हूँ? 

जो कभी उन्हें छोड़ गया था। 

जब भी मैं बिहार की सड़कों, से गुजरता हूँ। 


जब भी मैं खेतों, खलिहानों और दलानों से गुजरता हूँ। 

कुछ सिर ढके, फटे आँचल मेरी ओर देखती हैं। 

एक उम्मीद से, एक आस से कि मैं वही हूँ 

जिसे उन्होंने बड़ा किया, बुढ़ापे के लिए

 वो सूखी आँखें यह जाने बिना 

कि मैं कौन हूंँ? कहां से आया हूँ ? 

वो आँखें मुझसे पूछती हैं

उनका अपना कब आयेगा ? 

कब उनके पैर छुएगा ? 

कब उनके गले लगेगा ? 

और कहेगा, मैं कभी वापस नहीं जाऊंगा

जब भी मैं बिहार की सड़कों से गुजरता हूँ


जब भी मैं गांव, कस्बों और मोहल्लों से गुजरता हूँ

पर्दे के पीछे से झांकती  निगाहें

अपने साथी को तलाशती निगाहें

हर शाम काजल लगाती निगाहें

हर रात आंसू से उसे धो देती निगाहें

अब तो उसका चेहरा तक भुला रही निगाहें

बस बिछुड़ते पलों की याद संजोये है निगाहें

मेरी आहट से ही चमक उठती निगाहें

यह समझते ही कि मैं कोई और हूँ

फिर  से कुहक उठती हैं निगाहें

जब भी मैं बिहार की सड़कों से गुजरता हूँ

अनिश कुमार


सोमवार, 22 फ़रवरी 2021

कसक

 कसक

समर्पण की जो संध्या थी
वो तेरी और मेरी थी
तेरे अंजुल के ऊपर में
मेरी अंजुल अकेली थी

वो फेरों के सफर में भी
कसक मेरी अधुरी थी
बिदाई के पहर में भी
नयन तुझको ही ढुँढी थी

तेरे भेजे हर तोहफे मैंने
अभी भी सजा रखे हैं
टैडी की टूट गई आंखें
गिरे आंसू हमारे हैं

बिना गुंबद का ताज अब भी
मेरे बक्से की शोभा है
क्या ये मुहब्बत है
या धोखा है, छलावा है

अनिश कुमार

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