गुरुवार, 11 मार्च 2021

आंखें

 जब भी मैं बिहार की सड़कों से गुजरता हूँ

कुछ पथरीली आँखें 

टूटे चश्मे के  पीछे से मुझे

पहचानने कि कोशिश करती सी लगती हैं

 उन आँखों को देख लगता है 

कोई उनका खो गया है

वो निगाहें जैसे मुझसे पूछ रही हों,

क्या मैं उनका अपना हूँ?

क्या मैं वही हूँ? 

जो कभी उन्हें छोड़ गया था। 

जब भी मैं बिहार की सड़कों, से गुजरता हूँ। 


जब भी मैं खेतों, खलिहानों और दलानों से गुजरता हूँ। 

कुछ सिर ढके, फटे आँचल मेरी ओर देखती हैं। 

एक उम्मीद से, एक आस से कि मैं वही हूँ 

जिसे उन्होंने बड़ा किया, बुढ़ापे के लिए

 वो सूखी आँखें यह जाने बिना 

कि मैं कौन हूंँ? कहां से आया हूँ ? 

वो आँखें मुझसे पूछती हैं

उनका अपना कब आयेगा ? 

कब उनके पैर छुएगा ? 

कब उनके गले लगेगा ? 

और कहेगा, मैं कभी वापस नहीं जाऊंगा

जब भी मैं बिहार की सड़कों से गुजरता हूँ


जब भी मैं गांव, कस्बों और मोहल्लों से गुजरता हूँ

पर्दे के पीछे से झांकती  निगाहें

अपने साथी को तलाशती निगाहें

हर शाम काजल लगाती निगाहें

हर रात आंसू से उसे धो देती निगाहें

अब तो उसका चेहरा तक भुला रही निगाहें

बस बिछुड़ते पलों की याद संजोये है निगाहें

मेरी आहट से ही चमक उठती निगाहें

यह समझते ही कि मैं कोई और हूँ

फिर  से कुहक उठती हैं निगाहें

जब भी मैं बिहार की सड़कों से गुजरता हूँ

अनिश कुमार


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