मंगलवार, 14 मई 2019

बेटे आ ना


बेटे आ ना

दिन निकल जाता था बिखरे खिलौने सजाने में
किताबें रखने, यूनिफॉर्म धोने और झगड़े सुलझाने में
दिन निकल जाता था उनकी फरमाइशें पूरी करने में
कुशन उठाने, तकिये सजाने, पर्दे ठीक करने में

दिन निकल जाता था, उनके बिखरे बाल सजाने, 
टिफ़िन देने, खाना बनाने और खिलाने में
दिन निकल जाता था उनकी बकबक सुनने 
उन्हें होमवर्क कराने और जल्दी सुलाने में

जब बच्चे छोटे थे तब गुजारे दो कमरों में
अब बहुत खाली हैं हम दोनों महलों जैसे घरों में
सुबह शाम आवाजें सुन लेते हैं फोन में
मम्मी ध्यान रखो अपना सुन रो लेते हैं मन में

खिलौने सालों से बन्द हैं अलमारियों में
कोई निकालने वाला है नहीं
सजावटें कब से रखीं है वैसी ही
कोई बिखेरने वाला है नहीं

मैं तो बात कर तुमसे रो भी लेती हूँ
मन हल्का करके सो भी लेती हूँ
पर तेरे पापा कुछ बोलते ही नहीं 
दर्द दिल में लिए ठीक से सोते भी नहीं

न्यूज का डिबेट तेज आवाज में सुनते
ध्यान अपना घड़ी और मोबाइल पर रखते हैं
तेरा फोन आते ही खुश होते पर मुझसे छुपाते
कैसा है, पुछकर खामोश हो जाते हैं

बेटे आ जा ना कि समय कटता नहीं हम दोनों से
आ ना कि फिर से तेरे बिखरे सामान सजा सकूँ
तेरे लिए खाना बना, हाथों से अपने खिला सकूँ
आओ कि फिर से तेरे खिलौने सजाऊँ, झगड़े सुलझाऊँ

बेटे आ जा अब घर सजता नहीं मुझसे
बेटे आ जा कि अब दिखता नहीं आंखों से
आओ ना कि तेरा तुतलाना सुनूं पोते से
आओ ना कि तेरा रोना गाना बजाना सुनूं पोते से

बेटे आ ना कि वक़्त कम हो रहा है 
शाम हो रही है अंधेरा छाने वाला है
आ ना कि अब लौट कर मत जाना
आ ना कि फिर तेरे बाल संवार सकूँ
आ ना कि मन भर तुझे निहार सकूँ
आ ना कि मन भर तुझे निहार सकूँ

अनिश कुमार

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