सोमवार, 20 अप्रैल 2020

हे कोरोना, अब बस भी करो ना



हे कोरोना, अब बस भी करो ना

कोई चाँद पर बस्तियां बसा रहा
कोई मंगल में जीवन तलाश रहा
धरती तो संभल नहीं रही
सितारों में मिट्टी तलाश रहा
महिनों बीते, तेरा काट ढूंढ सके ना
हे कोरोना, अब बस भी करो ना

अपने सुविधाओं पर गर्व था जिनको
कदमों पर तेरे लोट रहे हैं
हम तो वैसे भी निर्बल निर्धन
थाली पिट काम चला रहे हैं
हमपर थोड़ा अहसान करो ना
हे कोरोना, अब बस भी करो ना

हालातों के मारे, हम बेचारे 
कदमों से अपने गाँव जा रहे हैं
तुम तो जहाजों से मेहमान बने आये
हम पेट का बोझ लिए जी रहे हैं
तुम दुनिया में सबसे मिल आये
अब हमें भी अपनों से मिलने दो ना
हे कोरोना, अब बस भी करो ना

खुद को धरती का मालिक
प्रकृति को गुलाम समझे
पड़ोस में गंदगी भरी
खुद को साफ समझे
मुहल्ले में हो रहे सेनिटाइजेशन संग
गुरूर भी सेनिटाइज करा रहे हैं ना
हे कोरोना, अब बस भी करो ना

सड़कों पर था कितना गुस्सा 
लाल चेहरे धधकती ज्वाला
कोई आगे निकल ना जाये
गाली गोली और तलवारें
ऐसी नफ़रतों पर भी देखो
लाॅकडाउन लगा रहे हैं ना
हे कोरोना, अब बस भी करो ना

रिश्तों की कद्र जो भूले
खेत खलिहान अंगना भूले
भटक भटक के डगर जो भूले
माँ का आँचल पापा का प्यार भूले
बंजारे सा भटकते रहे सब भूले
क्वारिंटाइन में भेज रहे हैं ना
हे कोरोना, अब बस भी करो ना

मान गये, जान गये, 
सबको पहचान गये,
रिश्ते नाते टूट गये
भाई बन्धु छूट गये
हम डर गये, हम हार गये
आइसोलेशन में पड़े हैं ना
हे कोरोना, अब बस भी करो ना

कोई खुश है कि तुम 
उसकी बस्तियों में नहीं आये
कोई खुश है कि तुम
उन्हें जन्नत दिलवाये
वेंटीलेटर पर पड़ी है सद्भावना
हाइड्रोक्सीकलोरोक्वीन दे रहे हैं ना
हे कोरोना, अब बस भी करो ना
हे कोरोना, अब बस भी करो ना

अनिश कुमार

शनिवार, 4 अप्रैल 2020

अनदेखा दुश्मन


अनदेखा दुश्मन

एक अनदेखा दुश्मन आज
कर रहा बैठ गले अट्टहास
सर्वनाश को तुला हुआ 
मानवता का उड़ा रहा परिहास

बन्द दरवाजे पुछ रहे हैं 
कर ली दुनिया मुट्ठी में ?
बहुत उड़ते थे पंख लगाये
गिर पड़े आकर मिट्टी में 

गिद्ध बने जो नोच रहे थे
कुदरत की सुन्दरता को
पलट लिया जब अपना रंग
तरस गये जीवन जीने को

बड़े शौक से खड़े किये थे
अट्टालिकाएं सपनों के
जी रहे हैं जीवन अपना
पीछे बन्द दरवाजों के

मार रहे हम पत्थर देवों को
मदर टेरेसा सह रही अपमान
उपर बैठे सोचे खुदा
सन्तानें क्यूँ कर रहे बदनाम

काल खटखटा रहा कुंडी
झरोखे से झांक रहा मुंडी
हड़प लिए डाड़ी पगडंडी
चूर चूर अंकल सैम घमंडी

बंद आंखों से बिश्व विजय का 
देख रहे थे सपना जो
अपने ही लोगों की लाशें
छुपा रहे हैं अब तो वो

मंदिरों में जो मरना चाहे, तो पट उसके खोल दो
मस्जिदों में गर जो चाहे, तो भीतर ही बन्द करो 
गुरुद्वारों के अन्दर भी, उन अभागों को जाने दो
जो जिस गत मरना चाहे, उस गत उसको मरने दो
जो जिस गत मरना चाहे, उस गत उसको मरने दो

अनिश कुमार

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